हिंदी और हम
आज हिंदी दिवस है। सुबह से ही शुभकामनाएँ भी फेसबुक पर दिखाई दे रहीं है और साथ ही साथ हिंदी की दुर्दशा के बारे में भी लिखा हुआ दिखाई दे रहा है।
मैं जिन बच्चों को पढ़ाती हूँ, उनके माता- पिता अधिकतर यही बताते हैं कि उनके घर अंग्रेजी के समाचार पत्र आते हैं , हिंदी की तो यह बस यह पाठ्य पुस्तक ही पढ़ ले तो बहुत है। कई कहते हैं कि मैम , हम कई किताबें लाकर देते हैं पर बच्चा उन्हें हाथ तक नहीं लगाता।
असल में समाज में हिंदी के बदले हम अंग्रेजी बोलना ज्यादा अच्छा समझते हैं, उसमें ज्यादा शान लगती है। बच्चा असमंजस की स्थिति में रहता है कि वह किस भाषा पर अधिक काम करे।
बचपन में बच्चे के साथ आप जितना समय देंगे, उसके साथ बैठकर कहानियाँ पढ़ेंगे , उसके बारे में चर्चा करेंगे , घर में जिस भाषा को महत्त्व देंगे , बच्चे का रुझान उस ओर ही होगा। घरों में आजकल अभिभावकों के पास बच्चे के पास बैठने का समय नहीं, हिंदी भाषा को जब सिर्फ एक विषय समझा गया ,जिसमें बच्चा पास तो हो ही जाएगा, वहाँ बच्चे की पकड़, हिंदी भाषा पर नहीं बन पाती।
कई बार जब बच्चों को नाटक सिखाते वक्त स्क्रिप्ट लिखने को कहा जाता है , तो हिंदी भाषा में नाटक लिखने के बजाय वे रोमन लिपि में हिंदी लिख रहे होते हैं, वे हिंदी लिखने से कतराते हैं , हिंदी की कोई भी किताब पढ़ने से हिचकिचाते हैं। उनके लेखन में भी गहराई नहीं आ पाती।
अगर हमें नई पीढ़ी को हिंदी की ऒर आकर्षित करना है तो सबसे पहले अभिभावकों को अपनी मानसिकता को बदलना होगा। घरों में अंग्रेजी के साथ- साथ हिंदी को भी उतना ही महत्तव देना होगा। प्रकाशकों को हिंदी की किताबों को और आकर्षित बनाना होगा तभी हम आगे आने वाले समय में हिंदी का उठान देख पाएँगे , नहीं तो हर वर्ष इसी तरह हिंदी की समस्याओं का रोना रोते रहेंगे।
उषा छाबड़ा
१४.९.१६
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