अपनी बात कहूँ, तो मैं किसी दूसरे शहर अकेले ट्रेन में नहीं गयी थी और न ही चार दिनों के लिए रहने!
भोपाल जाना था। ट्रेन की टिकट बुक हो गई और मैंने अकेले रात- भर का सफर पूरा किया। ऐसा नहीं
, बल्कि ऐसा कि मेरे साथ मेरे परिवार का कोई और सदस्य नहीं था। नींद आई नहीं ठीक से !होटल की बुकिंग वगैरह भी उन्हीं लोगों ने कराई थी जिनके काम के लिए गई थी।
स्टेशन पर उतरकर अपने-आप होटल पहुँची। कमरा मिला
, पर घुसते साथ ही दिखा कि कमरे
में पर्दे तो हैं, पर पर्दे के पीछे खिड़की नहीं है। खिड़की के बिना वह कमरा ऐसा लग रहा था जैसे कि कोई जेल हो। थोड़ी देर तो हिचक रही और बाद में मैंने आग्रह
किया कि मेरा कमरा बदल दें।
अब दूसरा कमरा मिल गया था और मन में थोड़ी शांति थी। पूरे दिन काम था और शाम होते-होते लगा कि अब
कमरे में जाकर क्या करूँगी?
सोचा, चलो आस-पास क्या है, देखा जाए, पर हिम्मत नहीं हुई। रात के वक्त अकेले निकलना थोड़ा उचित
नहीं लगा। होटल में ही रुक गई। कुछ
किताबें साथ ले गई थी, उन्हें पढ़ा। पर अगले दिन मैंने ठान लिया था कि सुबह
ज़रूर कहीं जाऊँगी।
सुबह हुई। जल्दी से नहाकर मैं पास के
ही सड़क पर निकल पड़ी। आस-पास पूछने पर पता चला कि वहाँ कोई मंदिर है। वहाँ चली
गई। ऐसे मेरे लिए किसी सड़क पर अकेले निकल
जाना बहुत ही एक अलग एहसास था। धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, बार-बार सोच रही थी कि कहीं
वापसी में रास्ता न भूल जाऊँ। वहाँ घूम-
फिर कर अच्छा लगा और फिर होटल वापस आ गई। उसी दिन शाम को कार्य खत्म होने के बाद
पास के मॉल में चली गई। आज भी तो रात थी, लेकिन आज थोड़ा बेहतर महसूस कर रही थी, थोड़ा हिम्मत जुटा ली
थी। चूँकि मुझे मॉल ज़्यादा पसंद नहीं है, तो मैं थोड़ी ही देर में फिर वापस
आ गई पर आज मैं थोड़ा बदली हुई थी।
अगले दिन सुबह उठी और आज मैंने सोच लिया कि मैं भोपाल में थोड़ा घूमूँगी। सुबह का वक्त था। ठंडी हवा थी, मैंने ऑटो पकड़ा और बड़े
तालाब की ओर चली। वहाँ जाकर मैंने नाव
वाले से बात की। आधा घंटा नाव में बैठी। बहुत आनंद आया। अकेले तो नाव में बैठने के
बारे में कभी सोचा ही नहीं था। फिर वापसी
में एक पार्क भी खोजा। वहाँ पर भी आधा घंटा लगाया और फिर होटल लौट आई और काम
किया। शाम को आज किसी भी नज़दीकी
बाज़ार में जाने की इच्छा हुई। किसी नामी-गिरामी बड़े बाजार में जाने की इच्छा
नहीं थी। बस इच्छा थी कि कुछ ऐसे ही देखा जाए। मैं ऑटो पकड़कर एक बाज़ार में गयी। बस सिर्फ़ घूमी, आस-पास देखा और होटल वापस आ गयी।
अगले दिन सुबह मैं दूसरी तरफ निकली कि देखूँ कि यहाँ क्या है। अच्छा
लगा। दूसरी ओर निकलते ही सब कुछ फिर से
अनजाना-सा लगा। ऐसा लगा, मैं तो कहीं और आ गई
हूँ। आधा -पौना घंटा घूमने के बाद वापस होटल पहुँच गई।
आज चौथा दिन था। वापसी का दिन। इस बार
तो ट्रेन भी वहाँ से खुद ही पकड़नी थी। स्टेशन पर खुद ही पहुँची। अपनी बोगी भी खुद ही खोजी, और फिर ट्रेन चल पड़ी। रात कटी और सुबह दिल्ली में थी।
पर क्या मैं वही रही, जो मैं चार दिन
पहले थी! नहीं, इस बार मैं बदली हुई थी।
मुझ में आत्मविश्वास भर गया था। अकेले कहीं निकलना और फिर पूरे दिन को प्लान करना कि आज सुबह कहाँ जाना है, शाम को क्या करूँगी, अपनी मर्ज़ी से कैसे इसे और बेहतर बनाया जाए कि यह सफ़र यादगार बन जाए, अनूठा हो जाए!
वाकई यह सफ़र मेरे लिए एक यादगार सफ़र था, जहाँ मैं पहली बार चार दिनों के
लिए एक होटल में रुकी, अपने-आप उस स्थान में घूमी, खूब आनंद लिया और वापस आई।
आप में से बहुतों को लग रहा होगा ये ऐसा तो कुछ खास नहीं लिखा। बिल्कुल सही,
आपके लिए बहुत खास
नहीं होगा, लेकिन मेरे लिए यह सफर बेहद ख़ास था।
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